बुधवार, 4 सितंबर 2013

कृष्ण के जन्म लेने की जगह

त्रेता युग में मर्यादा पुरुषोत्तम राम के अनुज शत्रुघ्न ने लवणासुर नामक राक्षस का वध कर इसकी स्थापना की थी।

द्वापर युग में यहां श्री कृष्ण के जन्म लेने के कारण इस नगर की महिमा और अधिक बढ़ गई है। यहां के मल्लपुरा क्षेत्र के कटरा केशव देव स्थित राजा कंस के कारागार में लगभग पांच हजार दो सौ वर्ष पूर्व भाद्रपद कृष्ण अष्टमी को रोहिणी नक्षत्र में रात्रि के ठीक 12 बजे कृष्ण ने देवकी के गर्भ से जन्म लिया था। यह स्थान उनके जन्म लेने कारण अत्यंत पवित्र माना जाता है |

समय बीतने के साथ कृष्ण के जन्म लेने की जगह और आस पास के क्षेत्र को “कटरा केशवदेव” के नाम से जाना जाने लगा।

पुरातात्विक एंव एतिहासिक सबूत बताते है की कृषण के जन्मस्थान को विभिन्न नामो से जाना जाता था। पुरातत्वविद और तात्कालिक मथुरा के कल्लेक्टर श्री फ स ग्रौजा के अनुसार केवल कटरा केशवदेव और आस पास के इलाके को ही मथुरा के रूप में जाना जाता जाता था। एतिहासिक साहीत्य का अध्यन करने के बाद इतिहासकार कनिहम इस निष्कर्ष पर पहुचे की वहां एक मधु नाम का राजा हुआ जिसके नाम पर उस जगह का नाम मधुपुर पड़ा , जिसे हम आज महोली के नाम से जानते है। राजा की हार के पश्चात् जेल की आस पास की जगह को जिसे हम आज “भूतेश्वर” के नाम से जानते है, को ही मथुरा कहा जाता था। एक अन्य इतिहासकार डॉ वासुदेव शरण अगरवाल ने कटरा केशवदेव को ही कृष्णजन्मभूमि कहा है। इन विभिन्न अध्य्न्नो एंव सबूतों के आधार पर मथुरा के राजनितिक संग्रहालय के दुसरे क्यूरेटर श्रे कृष्णदत्त वाजपेयी ने स्वीकार किया की कटरा केशवदेव ही कृषण की जन्म भूमि है।

पुरातात्विक सबूत एंव हमलों का इतिहास

प्रथम मन्दिर

पुरातात्विक विश्लेषणों, पुरातात्विक पत्थरों के टुकडो के अध्यन एंव विदेशी यात्रियों की लेखनियो से स्पष्ट होता है की इस स्थान पर समय समय पर कई बार भव्य मंदिर बनाये गए। सबूत बताते है की कंस की जेल के स्थान पर पहला मंदिर, जहाँ कृषण का जन्म हुआ था, कृषण के पडपोते “ब्रजनाभ ” ने बनवाया था।

ईसवी सन् से पूर्ववर्ती 80-57 के महाक्षत्रप सौदास के समय के एक शिला लेख से ज्ञात होता है जो कि ब्राह्मी लिपि में पत्थरों पर लिखे गए के “महाभाषा षोडश” के अनुसार वासु नाम के एक व्यक्ति ने श्री कृषण के जन्म स्थान पर बलि वेदी का निर्माण करवाया।

द्वितीय मन्दिर

दूसरा मन्दिर विक्रमादित्य के काल में सन् 800 ई॰ के लगभग बनवाया गया था। संस्कृति और कला की दृष्टि से उस समय मथुरा नगरी बड़े उत्कर्ष पर थी। हिन्दू धर्म के साथ बौद्ध और जैन धर्म भी उन्नति पर थे। श्रीकृष्ण जन्मस्थान के संमीप ही जैनियों और बौद्धों के विहार और मन्दिर बने थे। यह मन्दिर सन 1017-18 ई॰ में महमूद ग़ज़नवी के कोप का भाजन बना। इस भव्य सांस्कृतिक नगरी की सुरक्षा की कोई उचित व्यवस्था न होने से महमूद ने इसे ख़ूब लूटा। भगवान केशवदेव का मन्दिर भी तोड़ डाला गया।

मीर मुंशी अल उताबी, जो की गजनी का सिपहसलार था ने तारीख-इ-यमिनी में लिखा है की:

” शहर के बीचो बिच एक भव्य मंदिर मोजूद है जिसे देखने पर लगता है की इसका निर्माण फरिश्तो ने कराया होगा। इस मंदिर का वर्णन शब्दों एंव चित्रों में करना नामुमकिन है। सुल्तान खुद कहते है की अगर कोई इस भव्य मंदिर को बनाना चाहे तो कम से कम १० करोड़ दीनार और २०० साल लगेंगे। “

मीर मुंशी तो संघी नहीं था। संघ की बाते तो तुम्हे इतिहास का भगवाकरण लगता है। मीर मुंशी के लिखे हुए इतिहास का क्या कहोगे?

हालाँकि गजनी ने इस भव्य मंदिर को अपने गुस्से की आग में आकर ध्वस्त कर दिया। स्थानीय निवासियों का कत्ले आम किया और युवतियों को उठाकर साथ ले गया। और मोती लाल का नमूना नेहरु अपनी किताब “भारत की खोज” में गजनी को बहुत बड़ा वास्तु कला का प्रेमी बताता है, जिसने अव्यवस्थित मथुरा को तौड़ कर उसका कलात्मक निर्माण कराया। ये है नेहरु और कांग्रेसियों का सुनेहरा इतिहास।

तृतीय मन्दिर

संस्कृत के एक शिला लेख से ज्ञात होता है कि महाराजा विजयपाल देव जब मथुरा के शासक थे, तब सन 1150 ई॰ में जज्ज नामक किसी व्यक्ति ने श्रीकृष्ण जन्मस्थान पर एक नया मन्दिर बनवाया था। यह विशाल एवं भव्य बताया जाता हैं। कटरा केशवदेव के पत्थरों पर संस्क्रत भाषा में लिखे गए सबूतों से स्पष्ट होता है की मुस्लिम शासको की नजरो में यह मंदिर तबाही का लक्ष्य बन गया था। सिकंदर लोदी के शासन के दौरान कृष्ण जनम भूमि मंदिर एक बार पुनः तोडा गया।

चतुर्थ मन्दिर

मुग़ल बादशाह जहाँगीर के शासन काल में श्रीकृष्ण जन्मस्थान पर पुन: एक नया विशाल मन्दिर निर्माण कराया गया। ओरछा के शासक राजा वीरसिंह जू देव बुन्देला ने इसकी ऊँचाई 250 फीट रखी गई थी। यह आगरा से दिखाई देता बताया जाता है।

मुस्लिम शासको की बुरी नजर से मंदिर की रक्षा करने के लिए इसके आस पास एक ऊँची दिवार बनाने का भी आदेश दिया। जिसके अवशेष हम आज भी मंदिर के आस पास देख सकते है।

औरेंग्ज़ेब द्वारा विशाल मंदिर का विनाश

फ्रांस एंव इटली से आये विदेशी यात्रियों ने इस मंदिर की व्याख्या अपनी लेखनियो में सुरुचिपूर्ण और वास्तुशास्त्र के एक अतुल्य एंव अदभुत कीर्तिमान के रूप में की। वो आगे लिखते है की:

“इस मंदिर की बाहरी त्वचा सोने से ढकी हुई थी और यह इतना ऊँचा था की ३६ मिल दूर आगरा से भी दिखाई देता था। इस मंदिर की हिन्दू समाज में ख्याति देखकर औरंगजेब नाराज हो गया जिसके कारण उसने सन १६६९ में इस मंदिर को तुडवा दिया। वह इस मंदिर से इतना चिड़ा हुआ है की उसने मंदिर से प्राप्त अवशेषों से अपने लिए एक विशाल कुर्सी बनाने का आदेश दिया है। उसने कृषण जन्मभूमि पर ईदगाह बनाने का भी आदेश दिया है “

शुक्र है उपरोक्त कथन विदेशियों ने लिखे। अगर ये सब किसी हिन्दू ने लिखा होता तो उसे भी किवंदती कहकर रानी पद्मावती की तरह नकार दिया जाता। में यहाँ विदेशी और मुसलमानों के लेखो का उदाहरन इसीलिए दे रहा हु क्योंकि हिन्दू के द्वारा लिखे गए इतिहास को तो हमारे देश के सेकुलरिस्ट मानते ही नहीं।

औरंगजेब को उसके इस दुष्कर्म की सजा मिली। मंदिर तुडवाने के बाद वह कभी सुखी नहीं रह सका और अपने दक्षिण के अभियान से जिन्दा नहीं लौट सका। केवल उसके बेटे ही उसके विरुद्ध नहीं खड़े हुए बल्कि वे ईदगाह की भी रक्षा नहीं कर सके। और आख़िरकार आगरा और मथुरा पर मराठा साम्राज्य का अधीकार हो गया।

इसके बाद का इतिहास -

मराठो ने कटरा केशवदेव को ईदगाह समेत अधिकार मुक्त घोषित कर दिया। ये हे हिन्दुओ का सच। एक तरफ आप पाएंगे की जिस किसी भी मुस्लिम आक्रान्ता का मथुरा पर कब्ज़ा हुआ उसने मंदिर तोड़ने का नया कीर्तिमान बनाया। चाहे वह गजनी हो लोधी हो या ओरंगजेब। मगर जब हिन्दू मराठो का मथुरा पर कब्ज़ा हुआ तो मस्जिद तोड़ने की बात तो दूर उन्होंने मंदिर भी नहीं बनाया। जहा भगवन श्रीक्रष्ण का जनम हुआ था।

सन १८०२ में लोर्ड लेक ने मराठो पर जीत हासिल की और मथुरा एंव आगरा इस्ट इंडिया कंपनी के अधीन चले गए। इस्ट इंडिया कम्पनी ने भी इसे अधिकार मुक्त ही माना। सन १८१५ में इस्ट इंडिया कम्पनी ने कटरा केशवदेव के १३.३७ एकड़ के हिस्से की नीलामी की घोषणा की। जिसे काशी नरेश पत्निमल ने खरीद लिया।

इस खरीदी हुई जमीन पर राजा पत्निमल एक भव्य कृषण मंदिर बनाना चाहते थे। किन्तु मुसलमानों ने इसका यह कह कर विरोध किया की नीलामी केवल कटरा केशवदेव के लिए थी ईदगाह के लिए नहीं।


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विवाद - जैसा की सर्वविदित है की किस तरह मंदिर को तोड़ कर उसपे अवैध निर्माण किया गया उसपे कोई भी विवाद और दावे करना सामाजिक रूप से कितना गलत है फिर भी हिन्दूओ की इस सहिष्‍णुता से मैं स्‍तभ्भित हूं साथ इससे मुझे अपार पीड़ा भी हुई है। और मुस्लिम समाज तो है ही शांतप्रिय अमन पसंद | उनको कुछ कहना भावनाए आहत करना और साम्प्रदायिकता फैलाना है |
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क़ानूनी मामले -

ब्रिटिश शासन से अब तक कुल 6 बार मुस्लिम मुकदमा हारे और क़ानूनी तौर पर पूरा कटरा केशवदेव के १३.३७ एकड़ हिन्दुओं का है फिर भी .........

1 - सन १८७८ में मुसलमानों ने पहली बार एक मुकदमा दर्ज कराया।

मुसलमानों ने दावा किया की कटरा केशवदेव ईदगाह की सम्पति है और ईदगाह का निर्माण औरंगजेब ने कराया था इसलिए इस पर मुसलमानों का अधिकार है। इसके लिए मथुरा से प्रमाण मांगे गए।

तत्कालिक मथुरा कलेक्टर मिस्टर टेलर ने मुसलमानों के दावे को ख़ारिज करते हुए कहा की यह क्षेत्र मराठो के समय से स्वतंत्र है। जो की इस्ट इंडिया कम्पनी ने भी स्वीकार किया। जिसे सन १८१५ में काशी नरेश पत्निमल ने नीलामी में खरीद लिया। उन्होंने अपने आदेश में आगे जोड़ते हुए कहा की राजा पत्निमल ही कटरा केशवदेव, ईदगाह और आस पास के अन्य निर्माणों के मालिक है।

2 - दूसरी बार यार मुकदमा मथुरा के न्यायधीश एंथोनी की अदालत में अहमद शाह बनाम गोपी ई पि सी धारा ४४७/३५२ के रूप में दाखिल हुआ।

अहमद शाह ने आरोप लगाया की ईदगाह का चोकीदार गोपी कटरा केशवदेव के पश्चिमी हिस्से में एक सड़क का निर्माण करा रहा है। जबकि यह हिस्सा ईदगाह की संपत्ति है। अमहद शाह ने चोकीदार गोपी को सड़क बनाने से रोक दिया।

इस मुक़दमे का निर्णय सुनाते हुए न्यायधीश ने कहा की सड़क एंव विवादित जमीन पत्निमल परिवार की संपत्ति है। तथा अहमद शाह द्वारा लगाये गए आरोप झूठे है।

3 - तीसरा मुकदमा सन १९२० में आगरा जिला न्यायलय में दाखिल किया गया।

इस मुक़दमे में मथुरा के न्यायधीश हूपर के निर्णय को चुनोती दी गयी थी। (अपील संख्या २३६ (१९२१) एंव २७६(१९२०)) । इस मुक़दमे का निर्णय सुनाते हुए पुनः न्यायलय ने आदेश दिया की विवादित जमीन इस्ट इंडिया कंपनी द्वारा राजा पत्निमल को बेचीं गयी थी जिसका भुगतान भी वो ११४० रूपये के रूप में कर चुके है। इसलिए विवादित जमीन पर ईदगाह का कोई अधिकार नहीं है क्योंकि ईदगाह खुद राजा पत्निमल की संपत्ति है।

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पुरे क्षेत्र पर हिन्दू अधिकारों की घोषणा
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4 - सन १९२८ में मुसलमानों ने ईदगाह की मरम्मत की कोशिश की। जिसके कारण फिर यह मुकदमा अदालत में चला गया।

पुनः न्यायधीश बिशन नारायण तनखा ने फैसला सुनाते हुए कहा की कटरा केशवदेव राजा पत्निमल के उत्तराधिकारियो की संपत्ति है। मुसलमानों का इस पर कोई अधिकार नहीं है इसलिए ईदगाह की मरम्मत को रोका जाता है।

सन १९४४ में महामना मदन मोहन मालवीय जी की प्रेरणा से श्री जुगल किशोर बिरला जी ने सम्मसत क्षेत्र १३४०० रुपए में खरीद लिया और हनुमान प्रसाद पोतदार, भिकामल अतरिया एंव मालवीय जी के साथ मिल कर एक ट्रस्ट बनाया।

5 - सन १९४६ में मुकदमा फिर अदालत में गया। इस बार भी अदालत ने कटरा केशवदेव पर राजा पत्निमल के वंशजो का अधिकार बताया जो अब श्रीकृषण जन्मभूमि ट्रस्ट की संपत्ति है। क्योकि इसे राजा पत्निमल के वंशजो ने इस ट्रस्ट तो बेच दिया था।

6 - और अंतिम बार १९६० में पुनः न्यायलय ने आदेश देते हुआ कहा की:

“मथुरा नगर पालिका के बही खातो तथा दसरे सबूतों का अध्यन करने से यह स्पष्ट होता है की कटरा केशवदेव जिसमे ईदगाह भी शामिल है का लैंड टैक्स श्रीकृष्ण जन्मभूमि संस्था द्वारा ही दिया जाता है। इससे यह साबित होता है की विवादित जमीन पर केवल इसी ट्रस्ट का अधिकार है”।

इस तरह एक बार नहीं पुरे छ: बार अदालतों ने मथुरा पर हिन्दुओ का अधिकार स्वीकार किया। ये हे मथुरा की सच्चाई, क्या इस देश के तथाकथित सेकुलरिस्ट अदालत का निर्णय लागु करेंगे।

नहीं कभी नहीं कराएँगे।

क्योकि मथुरा में अगर मंदिर निर्माण हो गया तो ये फिर मुसलमानों के पास वोटो की भीख मांगने कैसे जायेंगे।

अयोध्या हो मथुरा हो या काशी, ये सभी तीर्थ जभी स्वतंत्र हो सकते है जब हिन्दू संगठित होंगे। इस देश में ३० % मुस्लमान हे। और इन ३० % मुसलमानों ने पुरे देश की राजनीती को अपना गुलाम बना रखा है। क्योकि ये संगठित है।

जबकि देश में 65 % हिन्दुओ के होते हुए भी उन्हें कोई पूछने वाला नहीं है, क्योकि वे असंगठित है। अगर इस देश की राजनितिक चाल को बदलना है तो इसके लिए राजनीती का हिन्दुकरण और हिन्दुओ का सैनिकीकरण अतिआवश्यक है।

स्वामी विवेकानंद: “इसाई मिशनरी अपने धर्म प्रचार में हिन्दू धरम के विरुद्ध तरह तरह की गन्दी बाते और कुत्सित प्रचार करते है, लेकिन इस्लाम के संबंध में उन्हें कुछ कहने की हिम्मत नहीं, क्योंकि वहां सीधे चमकती तलवारे खिंच जायेंगी। "

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जन्मस्थान का पुनरुद्वार
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सन 1940 के आसपास की बात है कि महामना पण्डित मदनमोहन जी का भक्ति-विभोर हृदय उपेक्षित श्रीकृष्ण जन्मस्थान के खण्डहरों को देखकर द्रवित हो उठा। उन्होंने इसके पुनरूद्वार का संकल्प लिया।

उसी समय सन् 1943 के लगभग ही स्वर्गीय श्री जुगलकिशोर जी बिड़ला मथुरा पधारे और श्रीकृष्ण जन्म स्थान की ऐतिहासिक वन्दनीय भूमि के दर्शनार्थ गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने जो दृश्य देखा उससे उनका हृदय उत्यन्त दु:खित हुआ।

महामना पण्डित मदनमोहन जी मालवीय ने इधर श्री जुगलकिशोर जी बिड़ला को श्रीकृष्ण-जन्मस्थान की दुर्दशा के सम्बन्ध में पत्र लिखा और उधर श्रीबिड़ला जी ने उनको अपने हृदय की व्यथा लिख भेजी। उसी के फलस्वरूप श्री कृष्ण जन्मस्थान के पुनरूद्वार के मनोरथ का उदय हुआ।

इसके फलस्वरूप धर्मप्राण श्री जुगल किशोर जी बिड़ला ने 07 फ़रवरी 1944 को कटरा केशव देव को राजा पटनीमल के तत्कालीन उत्तराधिकारियों से खदीद लिया, परन्तु मालवीय जी ने पुनरूद्धार की योजना बनाई थी वह उनके जीवनकाल में पूरी न हो सकी। उनकी अन्तिम इच्छा के अनुसार श्री बिड़ला जी ने 21 फ़रवरी 1951 को श्रीकृष्ण जन्मभूमि ट्रष्ट के नाम से एक ट्रष्ट स्थापित किया।

जन्मभूमि ट्रस्ट की स्थापना 1951 में हुई थी परन्तु उस समय मुसलमानों की ओर से 1945 में किया हुआ एक मुक़दमा इलाहाबाद हाईकोर्ट में निर्णयाधीन था इसलिए ट्रस्ट द्वारा जन्मस्थान पर कोई कार्य 7 जनवरी 1953 से पहले-जब मुक्दक़मा ख़ारिज हो गया-न किया जा सका।

उपेक्षित अवस्था में पड़े रहने के कारण उसकी दशा अत्यन्त दयनीय थी। कटरा के पूरब की ओर का भाग सन् 1885 के लगभग तोड़कर बृन्दावन रेलवे लाइन निकाली जा चुकी थी। बाक़ी तीन ओर के परकोटा की दीवारें और उससे लगी हुई कोठरियाँ जगह-जगह गिर गयी थीं और उनका मलबा सब ओर फैला पड़ा था। कृष्ण चबूतरा का खण्डहर भी विध्वंस किये हुए मन्दिर की महानता के द्योतक के रूप में खड़ा था।

चबूतरा पूरब-पश्चिम लम्बाई में 170 फीट और उत्तर-दक्खिन चौड़ाई में 66 फीट है। इसके तीनों ओर 16-16 फीट चौड़ा पुश्ता था जिसे सिकन्दर लोदी से पहले कुर्सी की सीध में राजा वीरसिंह देव ने बढ़ाकर परिक्रमा पथ का काम देने के लिये बनवाया था। यह पुश्ता भी खण्डहर हो चुका था। इससे क़रीब दस फीट नीची गुप्त कालीन मन्दिर की कुर्सी है जिसके किनारों पर पानी से अंकित पत्थर लगे हुए हैं।

उत्तर की ओर एक बहुत बड़ा गढ्डा था जो पोखर के रूप में था। समस्त भूमि का दुरूपयोग होता था, मस्जिद के आस-पास घोसियों की बसावट थी जो कि आरम्भ से ही विरोध करते रहे हैं।

अदालत दीवानी, फ़ौजदारी, माल, कस्टोडियन व हाईकोर्ट सभी न्यायालयों में एवं नगरपालिका में उनके चलायें हुए मुक़दमों में अपने सत्व एवं अधिकारों की पुष्टि व रक्षा के लिए बहुत कुछ व्यय व परिश्रम करना पड़ा। सभी मुक़दमों के निर्णय जन्मभूमि-ट्रस्ट के पक्ष में हुए।

मथुरा के प्रसिद्ध वेदपाठी ब्राह्मणों द्वारा हवन-पूजन के पश्चात श्री स्वामी अखंडानन्द जी महाराज ने सर्वप्रथम श्रमदान का श्रीगणेश किया और भूमि की स्वच्छता का पुनीत कार्य आरम्भ हुआ।

दो वर्ष तक नगर के कुछ स्थानीय युवकों ने अत्यन्त प्रेम और उत्साह से श्रमदान द्वारा उत्तर ओर के ऊँचे-ऊँचे टीलों को खोदकर बड़े गड्डे को भर दिया और बहुत सी भूमि समतल कर दी। कुछ विद्यालयों के छात्रो ने भी सहयोग दिया। इन्हीं दिनों उत्तर ओर की प्राचीर की टूटी हुई दीवार भी श्री डालमियाँ जी के दस हज़ार रुपये के सहयोग से बनवा दी गयी।

भूमि के कुछ भाग के स्वच्छ और समतल हो जाने पर भगवान कृष्ण के दर्शन एवं पूजन-अर्चन के लिए एक सुन्दर मन्दिर का निर्माण डालमिया-जैन ट्रस्ट के दान से सेठ श्रीरामकृष्ण जी डालमिया की स्वर्गीया पूज्या माताजी की पुण्यस्मृति में किया गया।

मन्दिर में भगवान के बल-विग्रह की स्थापना, जिसको श्री जुगल किशोर बिड़ला जी ने भेंट किया था, आषाढ़ शुक्ला द्वितीय सम्वत् 2014 दिनांक 29 जून सन् 1957 को हुई, और इसका उद्-घाटन भाद्रपद कृष्ण 8 सम्वत् 2015 दिनांक 6 सितंबर सन् 1958 को 'कल्याण' (गीता प्रेस) के यशस्वी सम्पादक संतप्रवर श्रीहनुमान प्रसाद पोद्दार के कर-कमलों द्वारा हुआ।

उसके बाद यहां भव्य मंदिर का निर्माण हुआ। भागवत भवन यहां का प्रमुख आकर्षण है। यहां पांच मंदिर हैं जिनमें राधा-कृष्ण का मंदिर मुख्य है। मथुरा का अन्य आकर्षण असिकुंडा बाजार स्थित ठाकुर द्वारिकाधीश महाराज का मंदिर है। यहां वल्लभ कुल की पूजा-पद्धति से ठाकुरजी की अष्टयाम सेवा-पूजा होती है। देश के सबसे बड़े व अत्यंत मूल्यवान हिंडोले द्वारिकाधीश मंदिर के ही है जोकि सोने व चांदी के है। यहां श्रावण माह में सजने वाली लाल गुलाबी, काली व लहरिया आदि घटाएं विश्व प्रसिद्ध हैं।

मथुरा में यमुना के प्राचीन घाटों की संख्या 25 है। उन्हीं सब के बीचों-बीच स्थित है- विश्राम घाट। यहां प्रात: व सांय यमुनाजी की आरती उतारी जाती है। यहां पर यमुना महारानी व उनके भाई यमराज का मंदिर भी मौजूद है। विश्राम के घाट के सामने ही यमुना पार महर्षि दुर्वासा का आश्रम है।

इसके अलावा मथुरा में भूतेश्वर महादेव, धु्रव टीला, कंस किला, अम्बरीथ टीला, कंस वध स्थल, पिप्लेश्वर महादेव, बटुक भैरव, कंस का अखाड़ा, पोतरा कुंड, गोकर्ण महादेव, बल्लभद्र कुंड, महाविद्या देवी मंदिर आदि प्रमुख दर्शनीय स्थल है।

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