अक्सर उद्यानों, सड़कों और घरों के आसपास सुंदर सफेद फूलों वाले मध्यम आकार के सप्तपर्णी के पेड़ देखे जा सकते हैं। यह एक ऐसा पेड़ है जिसकी पत्तियाँ चक्राकार समूह में सात – सात के क्रम में लगी होती है और इसी कारण इसे सप्तपर्णी कहा जाता है। इसका वानस्पतिक नाम एल्सटोनिया स्कोलारिस है। सुंदर फ़ूलों और उनकी मादक गंध की वजह से इसे उद्यानों में भी लगाया जाता है और फूलों को अक्सर मंदिरों और पूजा घरों में भगवान को अर्पित भी किया जाता है। आदिवासियों के बीच इस पेड़ की छाल, पत्तियों आदि को अनेक हर्बल नुस्खों के तौर पर अपनाया जाता है। चलिए आज जानते हैं सप्तपर्णी के औषधीय महत्व के बारे में।
आधुनिक विज्ञान इसकी छाल से प्राप्त डीटेइन और डीटेमिन जैसे रसायनों को क्विनाईन से बेहतर मानता है। आदिवासियों के अनुसार इस पेड़ की छाल को सुखाकर चूर्ण बनाया जाए और 2-6 ग्राम मात्रा का सेवन किया जाए, इसका असर मलेरिया के बुखार में तेजी से करता है। मजे की बात है इसका असर कुछ इस तरह होता है कि शरीर से पसीना नहीं आता जबकि क्विनाईन के उपयोग के बाद काफी पसीना आता है।
पेड़ से प्राप्त दूधनुमा द्रव को तेल के साथ मिलाकर कान में ड़ालने से कान दर्द में आराम मिल जाता है। डाँगी आदिवासियों की मानी जाए तो रात सोने से पहले २ बूंद द्रव की कान में ड़ाल दी जाए तो कान दर्द में राहत मिलती है।
पातालकोट के आदिवासियों का मानना है कि प्रसव के बाद माता को यदि छाल का रस पिलाया जाता है तो माता के स्तनों से दुध स्त्रावण की मात्रा बढ जाती है।
जुकाम और बुखार होने पर सप्तपर्णी की छाल, गिलोय का तना और नीम की आंतरिक छाल की समान मात्रा को कुचलकर काढा बनाया जाए और रोगी को दिया जाए तो अतिशीघ्र आराम मिलता है।
दाद, खाज और खुजली में भी आराम देने के लिए सप्तपर्णी की छाल के रस का उपयोग किया जाता है। छाल के रस के अलावा इसकी पत्तियों का रस भी खुजली, दाद, खाज आदि मिटाने के लिए काफी कारगर होता है। आधुनिक विज्ञान भी इन दावों से काफी सहमत है।
पेड़ से प्राप्त होने वाले दूधनुमा द्रव को घावों, अल्सर आदि पर लगाने से आराम मिल जाता है। दूधनुमा द्रव को घावों पर उंगली से लगाया जाए तो जल्दी घाव सूखने लगते हैं। घावों पर द्रव को प्रतिदिन रात सोने से पहले लगाना चाहिए।
डाँग-गुजरात के आदिवासियों के अनुसार किसी भी तरह केदस्त की शिकायत होने पर सप्तपर्णी की छाल का काढा रोगी को पिलाया जाए, दस्त तुरंत रुक जाते हैं। काढे की मात्रा ३ से ६ मिली तक होनी चाहिए तथा इसे कम से कम तीन बार प्रत्येक चार घंटे के अंतराल से दिया जाना चाहिए।
सप्तपर्णी की छाल का काढा पिलाने से बदन दर्द और बुखार में आराम मिलता है। डाँग- गुजरात के आदिवासियों के अनुसार इसकी छाल को सुखा लिया जाए और चूर्ण तैयार किया जाए। चूर्ण को पानी के साथ उबालकर काढा तैयार किया जाता है और रोगी को दिया जाता है।कृपया इस पोस्ट को ज्यादा से ज्यादा शेयर करें व पुण्य कमाएँ आपका अपना डॉ जितेंद्र गिल सदस्य भारतीय चिकित्सा परिषद् हरियाणा!
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