सोमवार, 30 जुलाई 2012
कालका मन्दिर , लखना इटावा
बुधवार, 25 जुलाई 2012
Vande matram
सस्य श्यामलां मातरंम् .
शुभ्र ज्योत्सनाम् पुलकित यामिनीम्
फुल्ल कुसुमित द्रुमदलशोभिनीम्,
सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम् .
सुखदां वरदां मातरम् ॥
सप्त कोटि कन्ठ कलकल निनाद कराले
द्विसप्त कोटि भुजैर्ध्रत खरकरवाले
के बोले मा तुमी अबले
बहुबल धारिणीम् नमामि तारिणीम्
रिपुदलवारिणीम् मातरम् ॥
तुमि विद्या तुमि धर्म, तुमि ह्रदि तुमि मर्म
त्वं हि प्राणाः शरीरे
बाहुते तुमि मा शक्ति,
हृदये तुमि मा भक्ति,
तोमारै प्रतिमा गडि मन्दिरे-मन्दिरे ॥
त्वं हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी
कमला कमलदल विहारिणी
वाणी विद्यादायिनी, नमामि त्वाम्
नमामि कमलां अमलां अतुलाम्
सुजलां सुफलां मातरम् ॥
श्यामलां सरलां सुस्मितां भूषिताम्
धरणीं भरणीं मातरम् ॥
लक्ष्मी सहगल
लक्ष्मी सहगल (जन्म: 24 अक्टूबर, 1914-देहावसान: 23 जुलाई 2012 ) भारत की स्वतंत्रता संग्राम की सेनानी हैं। वे आजाद हिन्द फौज की अधिकारी तथा 'आजाद हिन्द सरकार' में महिला मामलों की मंत्री थीं। वे व्यवसाय से डॉक्टर थी जो द्वितीय विश्वयुद्धके समय प्रकाश में आयीं। वे आजाद हिन्द फौज की 'रानी लक्ष्मी रेजिमेन्ट' की कमाण्डर थीं।
डॉक्टर लक्ष्मी सहगल का जन्म 1914 में एक परंपरावादी तमिल परिवार में हुआ और उन्होंने मद्रास मेडिकल कॉलेज से मेडिकल की शिक्षा ली, फिर वे सिंगापुर चली गईं। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जब जापानी सेना ने सिंगापुर में ब्रिटिश सेना पर हमला किया तो लक्ष्मी सहगल सुभाष चंद्र बोस की आज़ाद हिंद फ़ौज में शामिल हो गईं थीं।
वे बचपन से ही राष्ट्रवादी आंदोलन से प्रभावित हो गई थीं और जब महात्मा गाँधी ने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आंदोलन छेड़ा तो लक्ष्मी सहगल ने उसमे हिस्सा लिया। वे 1943 में अस्थायी आज़ाद हिंद सरकार की कैबिनेट में पहली महिला सदस्य बनीं। एक डॉक्टर की हैसियत से वे सिंगापुर गईं थीं लेकिन 87 वर्ष की उम्र में वे अब भी कानपुर के अपने घर में बीमारों का इलाज करती थीं।
आज़ाद हिंद फ़ौज की रानी झाँसी रेजिमेंट में लक्ष्मी सहगल बहुत सक्रिय रहीं। बाद में उन्हें कर्नल का ओहदा दिया गया लेकिन लोगों ने उन्हें कैप्टन लक्ष्मी के रूप में ही याद रखा।
आज़ाद हिंद फ़ौज की हार के बाद ब्रिटिश सेनाओं ने स्वतंत्रता सैनिकों की धरपकड़ की और 4 मार्च 1946 को वे पकड़ी गईं पर बाद में उन्हें रिहा कर दिया गया। लक्ष्मी सहगल ने 1947 में कर्नल प्रेम कुमार सहगल से विवाह किया और कानपुर आकर बस गईं। लेकिन उनका संघर्ष ख़त्म नहीं हुआ और वे वंचितों की सेवा में लग गईं। वे भारत विभाजन को कभी स्वीकार नहीं कर पाईं और अमीरों और ग़रीबों के बीच बढ़ती खाई का हमेशा विरोध करती रही।
यह एक विडंबना ही है कि जिन वामपंथी पार्टियों ने द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान का साथ देने के लिए सुभाष चंद्र बोस की आलोचना की, उन्होंने ही लक्ष्मी सहगल को भारत के राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाया। लेकिन वामपंथी राजनीति की ओर लक्ष्मी सहगल का झुकाव 1971 के बाद से बढ़ने लगा था। वे अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति की संस्थापक सदस्यों में से थीं।
डॉक्टर लक्ष्मी सहगल का जन्म 1914 में एक परंपरावादी तमिल परिवार में हुआ और उन्होंने मद्रास मेडिकल कॉलेज से मेडिकल की शिक्षा ली, फिर वे सिंगापुर चली गईं। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जब जापानी सेना ने सिंगापुर में ब्रिटिश सेना पर हमला किया तो लक्ष्मी सहगल सुभाष चंद्र बोस की आज़ाद हिंद फ़ौज में शामिल हो गईं थीं।
वे बचपन से ही राष्ट्रवादी आंदोलन से प्रभावित हो गई थीं और जब महात्मा गाँधी ने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आंदोलन छेड़ा तो लक्ष्मी सहगल ने उसमे हिस्सा लिया। वे 1943 में अस्थायी आज़ाद हिंद सरकार की कैबिनेट में पहली महिला सदस्य बनीं। एक डॉक्टर की हैसियत से वे सिंगापुर गईं थीं लेकिन 87 वर्ष की उम्र में वे अब भी कानपुर के अपने घर में बीमारों का इलाज करती थीं।
आज़ाद हिंद फ़ौज की रानी झाँसी रेजिमेंट में लक्ष्मी सहगल बहुत सक्रिय रहीं। बाद में उन्हें कर्नल का ओहदा दिया गया लेकिन लोगों ने उन्हें कैप्टन लक्ष्मी के रूप में ही याद रखा।
आज़ाद हिंद फ़ौज की हार के बाद ब्रिटिश सेनाओं ने स्वतंत्रता सैनिकों की धरपकड़ की और 4 मार्च 1946 को वे पकड़ी गईं पर बाद में उन्हें रिहा कर दिया गया। लक्ष्मी सहगल ने 1947 में कर्नल प्रेम कुमार सहगल से विवाह किया और कानपुर आकर बस गईं। लेकिन उनका संघर्ष ख़त्म नहीं हुआ और वे वंचितों की सेवा में लग गईं। वे भारत विभाजन को कभी स्वीकार नहीं कर पाईं और अमीरों और ग़रीबों के बीच बढ़ती खाई का हमेशा विरोध करती रही।
यह एक विडंबना ही है कि जिन वामपंथी पार्टियों ने द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान का साथ देने के लिए सुभाष चंद्र बोस की आलोचना की, उन्होंने ही लक्ष्मी सहगल को भारत के राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाया। लेकिन वामपंथी राजनीति की ओर लक्ष्मी सहगल का झुकाव 1971 के बाद से बढ़ने लगा था। वे अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति की संस्थापक सदस्यों में से थीं।
चंद्रशेखर आज़ाद
माँ भारती के अमर सपूत महान क्रांतिकारी, बलिदानी और युवाओ के प्रेरणास्रोत चंद्रशेखर आज़ाद जी को उनके जन्मदिवस पर शत शत नमन ...
गुरुवार, 12 जुलाई 2012
सिखों के छठवें गुरुगुरु हरगोबिंद सिंह
गुरु हरगोबिंद सिंह जयंती: सिखों के छठवें गुरु
Guru Hargobind Singh Jayanti
सिख समाज की स्थापना का मुख्य मकसद ही धर्म की रक्षा करना था. सिख समाज के दस गुरुओं ने इस धर्म को दुनिया की निगाहों में सबसे ऊपर रखने में मदद की. इन्हीं गुरुओं में से एक थे गुरु हरगोबिंद सिंह.
Guru Hargovind Singh
गुरु हरगोबिंद सिंह सिखों के छठे गुरु थे. यह सिखों के पांचवें गुरु अर्जुनसिंह के पुत्र थे. गुरु हरगोबिंद सिंह ने ही सिखों को अस्त्र-शस्त्र का प्रशिक्षण लेने के लिए प्रेरित किया व सिख पंथ को योद्धा चरित्र प्रदान किया. वे स्वयं एक क्रांतिकारी योद्धा थे. आज गुरु हरगोबिंद सिंह की जयंती है.
Guru Hargovind Singh’s Profile in Hindi
गुरु हरगोबिंद सिंह का शुरू से ही युद्ध के प्रति झुकाव था. गुरु हरगोबिंद सिंह ने अपना ज्यादातर समय युद्ध प्रशिक्षण एव युद्ध कला में लगाया. मुगलों के विरोध में गुरु हरगोबिंद सिंह ने अपनी सेना संगठित की और अपने शहरों की किलेबंदी की.
Guru Hargovind Singh’s Fight
मुगल बादशाह जहांगीर ने सिखों की मजबूत होती हुई स्थिति को खतरा मानकर गुरु हरगोबिंद सिंह को ग्वालियर में कैद कर लिया. गुरु हरगोबिंद सिंह बारह वर्षों तक कैद में रहे लेकिन उनके प्रति सिखों की आस्था और मज़बूत हुई. रिहा होने पर उन्होंने शाहजहां के खिलाफ बगावत कर दी और 1628 ई. में अमृतसर के निकट संग्राम में शाही फौज को हरा दिया.
मुगलों की अजेय सेना को गुरु हरगोबिंद सिंह ने चार बार हराया था. अपने पूर्वजों द्वारा स्थापित आदर्शों में गुरु हरगोबिंद सिंह ने एक और आदर्श जोड़ा, सिक्खों का यह अधिकार और कर्तव्य है कि “अगर जरुरत हो तो वे तलवार उठाकर भी अपने धर्म की रक्षा करें.”
गुरु हरगोबिंद सिंह केवल धर्मोपदेशक ही नहीं, कुशल संगठनकर्ता भी थे. गुरु हरगोबिंद सिंह ने ही अमृतसर में अकाल तख्त (ईश्वर का सिंहासन) का निर्माण किया. उन्होंने अमृतसर के निकट एक किला बनवाया और उसका नाम लौहगढ़ रखा. उन्होंने बड़ी कुशलता से अपने अनुयायियों में युद्ध के लिए इच्छाशक्ति और आत्मविश्वास पैदा किया.
लेकिन सन 1644 ई. में कीरतपुर (पंजाब) भारत में उनकी मृत्यु हो गई. लेकिन गुरु हरगोबिन्द सिंह ने सिख धर्म को जरूरत के समय शस्त्र उठाने की ऐसी सीख दी जो आज भी सिख धर्म की पहचान है.
स्वामी विवेकानंद
Swami Vivekananda’s Profile – स्वामी विवेकानंद:
Swami Vivekananda Profile in Hindi
आधुनिक भारत की पहचान विश्व में एक ऐसे देश की है जिसकी संस्कृति और विरासत का दूसरा कोई सानी नहीं. भारत को सोने की चिड़िया, ज्ञान का देश ऐसे ही नहीं कहा जाता था. लेकिन इस देश को विश्व में पहचान दिलाने में हमारे महापुरुषों का अहम रोल रहा है. स्वामी विवेकानंद एक ऐसे महापुरुष थे जिन्होंने आधुनिक भारत की नींव रखी और दुनिया के मानचित्र पर भारत का नाम स्वर्ण अक्षरों में दर्ज कराया. भारतीय संस्कृति और धर्म दर्शन को उन्होंने दुनियाभर में श्रेष्ठ सिद्ध किया.
स्वामी विवेकानंद आधुनिक भारत के एक क्रांतिकारी विचारक माने जाते हैं. 12 जनवरी, 1863 को कलकत्ता में जन्मे स्वामी विवेकानंद के बचपन का नाम नरेंद्र नाथ था. इन्होंने अपने बचपन में ही परमात्मा को जानने की तीव्र जिज्ञासावश तलाश आरंभ कर दी. इसी क्रम में उन्होंने सन 1881 में पहली बार रामकृष्ण परमहंस से भेंट की और उन्हें अपना गुरु स्वीकार कर लिया तथा अध्यात्म-यात्रा पर चल पड़े. काली मां के अनन्य भक्त स्वामी विवेकानंद ने आगे चलकर अद्वैत वेदांत के आधार पर सारे जगत को आत्म-रूप बताया और कहा कि “आत्मा को हम देख नहीं सकते किंतु अनुभव कर सकते हैं. यह आत्मा जगत के सर्वांश में व्याप्त है. सारे जगत का जन्म उसी से होता है, फिर वह उसी में विलीन हो जाता है. उन्होंने धर्म को मनुष्य, समाज और राष्ट्र निर्माण के लिए स्वीकार किया और कहा कि धर्म मनुष्य के लिए है, मनुष्य धर्म के लिए नहीं. भारतीय जन के लिए, विशेषकर युवाओं के लिए उन का नारा था – “उठो, जागो और लक्ष्य की प्राप्ति होने तक रुको मत.”
Swami Vivekananda speech in Chicago
31 मई, 1883 को वह अमेरिका गए. 11 सितंबर, 1883 में शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन में उपस्थित होकर अपने संबोधन में सबको भाइयों और बहनों कह कर संबोधित किया. इस आत्मीय संबोधन पर मुग्ध होकर सब बड़ी देर तक तालियां बजाते रहे. वहीं उन्होंने शून्य को ब्रह्म सिद्ध किया और भारतीय धर्म दर्शन अद्वैत वेदांत की श्रेष्ठता का डंका बजाया. उनका कहना था कि आत्मा से पृथक करके जब हम किसी व्यक्ति या वस्तु से प्रेम करते हैं, तो उसका फल शोक या दुख होता है. अत: हमें सभी वस्तुओं का उपयोग उन्हें आत्मा के अंतर्गत मान कर करना चाहिए या आत्म-स्वरूप मान कर करना चाहिए ताकि हमें कष्ट या दुख न हो.
अमेरिका में चार वर्ष रहकर वह धर्म-प्रचार करते रहे तथा 1887 में भारत लौट आए. भारतीय धर्म-दर्शन का वास्तविक स्वरूप और किसी भी देश की अस्थिमज्जा माने जाने वाले युवकों के कर्तव्यों का रेखांकन कर स्वामी विवेकानंद सम्पूर्ण विश्व के ‘जननायक‘ बन गए.
Swami Vivekananda’s quote
फिर बाद में विवेकानंद ने 18 नवंबर,1896 को लंदन में अपने एक व्याख्यान में कहा था, मनुष्य जितना स्वार्थी होता है, उतना ही अनैतिक भी होता है. उनका स्पष्ट संकेत अंग्रेजों के लिए था, किंतु आज यह कथन भारतीय समाज के लिए भी कितना अधिक सत्य सिद्ध हो रहा है.
Swami Vivekananda’s quote on Freedom
पराधीन भारतीय समाज को उन्होंने स्वार्थ, प्रमाद व कायरता की नींद से झकझोर कर जगाया और कहा कि मैं एक हजार बार सहर्ष नरक में जाने को तैयार हूं यदि इससे अपने देशवासियों का जीवन-स्तर थोडा-सा भी उठा सकूं.
स्वामी विवेकानंद ने अपनी ओजपूर्ण वाणी से हमेशा भारतीय युवाओं को उत्साहित किया है. उनके उपदेश आज भी संपूर्ण मानव जाति में शक्ति का संचार करते है. उनके अनुसार, किसी भी इंसान को असफलताओं को धूल के समान झटक कर फेंक देना चाहिए, तभी सफलता उनके करीब आती है. स्वामी जी के शब्दों में ‘हमें किसी भी परिस्थिति में अपने लक्ष्य से भटकना नहीं चाहिए‘.
Swami Vivekananda’s Death
स्वामी विवेकानंद ने अशिक्षा, अज्ञान, गरीबी तथा भूख से लडने के लिए अपने समाज को तैयार किया और साथ ही उन्होंने राष्ट्रीय चेतना जगाने, सांप्रदायिकता मिटाने, मानवतावादी संवेदनशील समाज बनाने के लिए एक आध्यात्मिक नायक की भूमिका भी निभाई. 4 जुलाई, 1902 को कुल 39 वर्ष की आयु में विवेकानंद जी का निधन हो गया. इतनी कम उम्र में भी उन्होंने अपने जीवन को उस श्रेणी में ला खड़ा किया जहां वह मरकर भी अमर हो गए.
जब-जब मानवता निराश एवं हताश होगी, तब-तब स्वामी विवेकानंद के उत्साही, ओजस्वी एवं अनंत ऊर्जा से भरपूर विचार जन-जन को प्रेरणा देते रहेंगे और कहते रहेंगे-‘उठो जागो और अपने लक्ष्य की प्राप्ति से पूर्व मत रुको.’
युवाओं के प्रेरणास्त्रोत -आध्यात्मिक गुरु स्वामी विवेकानंद (Profile of Swami Vivekananda)
पहलवान दारा सिंह
जिंदगी की जंग हार गए पहलवान दारा सिंह !!
पोस्टेड ओन: 12 Jul, 2012 जनरल डब्बा में
टी.वी. के हनुमान और अखाड़े के पहलवान दारा सिंह, जिन्होंने ना जाने कितने दिग्गजों को हार का स्वाद चखाया, आज अपनी जिंदगी की जंग हार गए. एक लंबी बीमारी से जूझते हुए उन्होंने आज सुबह यानि गुरुवार 12 जुलाई सुबह 7.30 बजे अपनी अंतिम सांसे लीं. पिछले कई दिनों से दारा सिंह कोकिला बेन अस्पताल में भर्ती थे. रुस्तम-ए-हिंद दारा सिंह के बेटे बिंदू दारा सिंह की इच्छा थी कि उनके पिता की मृत्यु अस्पताल में नहीं बल्कि उनके अपने घर में हो, इसीलिए डॉक्टरों ने जब उन्हें ब्रेन डेड घोषित किया तो उनके परिजन उन्हें घर ले आए. दारा सिंह के स्वास्थ्य के लिए पूरा देश प्रार्थना कर रहा था लेकिन कोकिला बेन अस्पताल के डॉक्टरों की लाख कोशिशों के बाद भी दारा सिंह अपनी मृत्यु को टाल नहीं पाए.
84 वर्षीय दारा सिंह को बीती 7 जुलाई को दिल का दौरा पड़ा था जिसके बाद उन्हें अस्पताल में भर्ती करवाया गया था. तभी से वे आईसीयू में थे. अस्पताल के चीफ ऑपरेटिंग ऑफिसर डॉक्टर राम नारायण कहना है कि एमआरआई के बाद यह पता चला कि ऑक्सीजन की कम आपूर्ति होने के कारण उनके मस्तिष्क को काफी नुकसान पहुंचा है.
दारा सिंह का जीवन
दारा सिंह का जन्म 19 नवंबर, 1928 को अमृतसर, पंजाब में हुआ था. इनका पूरा नाम दारा सिंह रंधावा है. बचपन से ही वह मजबूत कद-काठी के थे यही वजह है कि उनका कुश्ती के प्रति रुझान उत्पन्न होने लगा. अखाड़े में देर तक कुश्ती के दांव-पेंच सीखने वाले दारा सिंह पहले मेलों और अन्य समारोहों में कुश्ती प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेते थे. धीरे-धीरे उनकी पहलवानी को मान्यता मिलने लगी और वह भारत के एक प्रमुख और एक कुशल पहलवान बन गए.
दारा सिंह का कॅरियर (पहलवानी)
पहलवान के रूप में ख्याति प्राप्त करने के तुरंत बाद वह व्यवसायिक पहलवानी के लिए अमेरिका चले गए. अमेरिका में उन्होंने कई प्रतियोगिताओं में अपने प्रतिद्वंदियों को धूल चटाई. उन्होंने कई नामी पहलवानों को हराया जिसमें अपने समय के सबसे विख्यात पहलवान लोउ थीज भी शामिल हैं.
दारा सिंह का कॅरियर (फिल्मी)
भारत वापस आने पर उन्होंने कई फिल्मों में भी काम किया पर शुरुआत में उनके साथ काम करने में नायिकाएं असहज महसूस करती थीं क्योंकि दारा सिंह का भारी-भरकम शरीर उन्हें अजीब लगता था. एक तरफ बॉलिवुड की फूल जैसे नायिकाएं दूसरी तरह रफ एंड टफ दारा सिंह. लीड हीरो के तौर पर दारा सिंह ने कई फिल्मों में काम किया जिसमें से सबसे ज्यादा 16 फिल्मों में उन्होंने मुमताज के साथ काम किया था.
1980 और 90 के दशक में दारा सिंह के जीवन में असली मोड़ आया जब टीवी शो `रामायण ने उनकी किस्मत ही बदल दी. रामानंद सागर द्वारा प्रस्तुत रामायण में दारा सिंह को हनुमान का किरदार दिया गया. इस किरदार में दारा सिंह कुछ यूं समां गए कि आज भी लोग उन्हें रामायण का हनुमान कहकर पुकारते हैं. इसके बाद से दारा सिंह ने कई धार्मिक टीवी सीरियलों में हनुमान का किरदार भी निभाया.
दारा सिंह ने 100 से अधिक फिल्मों में काम किया है. उन्होंने अधिकतर फिल्मों में सह अभिनेता या पिता-दादा की भूमिका निभाई है. हाल ही में दारा सिंह “जब वी मेट” और “रेडी” जैसी फिल्मों में दिखे थे. दारा सिंह के तीन बेटे हैं जिनके नाम बिंदु दारा सिंह, प्रद्युमन सिंह रंधावा और अमरीक सिंह हैं.
दारा सिंह ने कैनेडियन ओपन टेग टीम चैंपियनशिप, रुस्तम-ए-पंजाब, रुस्तम-ए-हिंद जैसे खिताब जीते हैं. भारतीय जनता पार्टी ने साल 2003 में दारा सिंह को राज्य सभा के लिए नामांकित किया था.
खजुराहो
खजुराहो का इतिहास लगभग एक हजार साल पुराना है। यह शहर चन्देल साम्राज्य की प्रथम राजधानी था। चन्देल वंश और खजुराहो के संस्थापक चन्द्रवर्मन थे।चन्द्रवर्मन मध्यकाल में बुंदेलखंड में शासन करने वाले राजपूत राजा थे। वे अपने आप का चन्द्रवंशी मानते थे। चंदेल राजाओं ने दसवीं से बारहवी शताब्दी तक मध्य भारत में शासन किया। खजुराहो के मंदिरों का निर्माण 950 ईसवीं से 1050 ईसवीं के बीच इन्हीं चन्देल राजाओं द्वारा किया गया। मंदिरों के निर्माण के बाद चन्देलो ने अपनी राजधानी महोबा स्थानांतरित कर दी। लेकिन इसके बाद भी खजुराहो का महत्व बना
जब से ब्रिटिश इंजीनियर टी एस बर्ट ने खजुराहो के मंदिरों की खोज की है तब से मंदिरों के एक विशाल समूह को 'पश्चिमी समूह' के नाम से जाना जाता है। यह खजुराहो के सबसे आकर्षक स्थानों में से एक है। इस स्थान को युनेस्को ने 1986 में विश्व विरासत की सूची में शामिल भी किया है। इसका मतलब यह हुआ कि अब सारा विश्व इसकी मरम्मत और देखभाल के लिए उत्तरदायी होगा।
इस परिसर के विशाल मंदिरों की बहुत ज्यादा सजावट की गई है। यह सजावट यहां के शासकों की संपन्नता और शक्ति को प्रकट करती है। इतिहासकारों का मत है कि इनमें हिन्दू देवकुलों के प्रति भक्ति भाव दर्शाया गया है। देवकुलों के रूप में या तो शिव या विष्णु को दर्शाया गया है। इस परिसर में स्थित लक्ष्मण मंदिर उच्च कोटि का मंदिर है। इसमें भगवान विष्णु को बैकुंठम के समान बैठा हुआ दिखाया गया है। चार फुट ऊंची विष्णु की इस मूर्ति में तीन सिर हैं। ये सिर मनुष्य, सिंह और वराह के रूप में दर्शाए गए हैं। कहा जाता है कि कश्मीर के चम्बा क्षेत्र से इसे मंगवाया गया था। इसके तल के बाएं हिस्से में आमलोगों के प्रतिदिन के जीवन के क्रियाकलापों, कूच करती हुई सेना, घरेलू जीवन तथा नृतकों को दिखाया गया है।
मंदिर के प्लेटफार्म की चार सहायक वेदियां हैं। 954 ईसवीं में बने इस मंदिर का संबंध तांत्रिक संप्रदाय से है। इसका अग्रभाग दो प्रकार की मूर्तिकलाओं से सजा है जिसके मध्य खंड में आलिंगन करते हुए दंपत्तियों को दर्शाता है। मंदिर के सामने दो लघु वेदियां हैं। एक देवी और दूसरा वराह देव को समर्पित है। विशाल वराह की आकृति पीले पत्थर की चट्टान के एकल खंड में बनी है। —