स्वामी विवेकानंद जी की आज जयंती है |
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विवेकानन्दजी का जन्म १२ जनवरी सन् १८६३ को हुआ.
उनका घर का नाम नरेन्द्र था. उनके पिताश्री विश्वनाथ दत्त पाश्चात्य सभ्यता में विश्वास रखते थे. वे अपने पुत्र नरेन्द्र को भी अँग्रेजी पढ़ाकर पाश्चात्य सभ्यता के ढ़ंग पर ही चलाना चाहते थे. नरेन्द्र की बुद्धि बचपन से बड़ी तीव्र थी और परमात्मा को पाने की लालसा भी प्रबल थी. परिणाम स्वरुप स्वामी विवेकानन्द ने अपना जीवन अपने गुरुदेव स्वामी रामकृष्ण परमहंस को समर्पित कर दिया.
25 वर्ष की अवस्था में उन्होंने गेरुआ वस्त्र धारण कर लिये. तत्पश्चात् उन्होंने पैदल ही पूरे भारतवर्ष की यात्रा की. सन् 1893 में शिकागो (अमेरिका) में विश्व धर्म परिषद् हो रही थी. स्वामी विवेकानन्दजी उसमें भारत के प्रतिनिधि के रूप में पहुँचे. योरोप-अमेरिका के लोग उस समय पराधीन भारतवासियों को बहुत हीन दृष्टि से देखते थे. वहाँ लोगों ने बहुत प्रयत्न किया कि स्वामी विवेकानन्द को सर्वधर्म परिषद् में बोलने का समय ही न मिले. एक अमेरिकन प्रोफेसर के प्रयास से उन्हें थोड़ा समय मिला किन्तु उनके विचार सुनकर सभी विद्वान चकित हो गये. इस सर्वधर्म सम्मेलन के भाषणों के बाद, "द न्यूयार्क हेराल्ड" ने लिखा कि, "धर्म सम्मेलन में सबसे महान व्यक्ति विवेकानन्द हैं। उनका भाषण सुनने के बाद यह प्रश्न अनायास खड़ा होता है कि ऐसे ज्ञानी देश को सुधारने के लिए धर्म प्रचारक भेजना कितनी बेवकूफी की बात है." फिर तो अमेरिका में उनका अत्यधिक स्वागत हुआ. वहाँ इनके भक्तों का एक बड़ा समुदाय हो गया. तीन वर्ष तक वे अमेरिका में रहे और वहाँ के लोगों को भारतीय तत्वज्ञान की अद्भुत ज्योति प्रदान करते रहे. उनकी वक्तृत्व-शैली तथा ज्ञान को देखते हुए वहाँ के मीडिया ने उन्हें साइक्लॉनिक हिन्दू का नाम दिया.
स्वामी विवेकानंद के इस ओजस्वी चरित्र का महत्व समझाते हुए कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कहा था कि , "यदि कोई भारत को समझना चाहता है तो उसे विवेकानन्द को पढ़ना चाहिए"
योगी अरविन्द ने कहा था, "पश्चिमी जगत में विवेकानन्द को जो सफलता मिली, वह इस बात का प्रमाण है कि भारत विश्व-विजय करके रहेगा."
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने लिखा है, "स्वामी विवेकानन्द का धर्म राष्ट्रीयता को उत्तेजना देने वाला धर्म था. नई पीढ़ी के लोगों में उन्होंने भारत के प्रति भक्ति जगायी, उसके अतीत के प्रति गौरव एवं उसके भविष्य के प्रति आस्था उत्पन्न की |
ऐसे युगपुरुष को कोटि-कोटि नमन, शत-शत प्रणाम...!!
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विवेकानन्दजी का जन्म १२ जनवरी सन् १८६३ को हुआ.
उनका घर का नाम नरेन्द्र था. उनके पिताश्री विश्वनाथ दत्त पाश्चात्य सभ्यता में विश्वास रखते थे. वे अपने पुत्र नरेन्द्र को भी अँग्रेजी पढ़ाकर पाश्चात्य सभ्यता के ढ़ंग पर ही चलाना चाहते थे. नरेन्द्र की बुद्धि बचपन से बड़ी तीव्र थी और परमात्मा को पाने की लालसा भी प्रबल थी. परिणाम स्वरुप स्वामी विवेकानन्द ने अपना जीवन अपने गुरुदेव स्वामी रामकृष्ण परमहंस को समर्पित कर दिया.
25 वर्ष की अवस्था में उन्होंने गेरुआ वस्त्र धारण कर लिये. तत्पश्चात् उन्होंने पैदल ही पूरे भारतवर्ष की यात्रा की. सन् 1893 में शिकागो (अमेरिका) में विश्व धर्म परिषद् हो रही थी. स्वामी विवेकानन्दजी उसमें भारत के प्रतिनिधि के रूप में पहुँचे. योरोप-अमेरिका के लोग उस समय पराधीन भारतवासियों को बहुत हीन दृष्टि से देखते थे. वहाँ लोगों ने बहुत प्रयत्न किया कि स्वामी विवेकानन्द को सर्वधर्म परिषद् में बोलने का समय ही न मिले. एक अमेरिकन प्रोफेसर के प्रयास से उन्हें थोड़ा समय मिला किन्तु उनके विचार सुनकर सभी विद्वान चकित हो गये. इस सर्वधर्म सम्मेलन के भाषणों के बाद, "द न्यूयार्क हेराल्ड" ने लिखा कि, "धर्म सम्मेलन में सबसे महान व्यक्ति विवेकानन्द हैं। उनका भाषण सुनने के बाद यह प्रश्न अनायास खड़ा होता है कि ऐसे ज्ञानी देश को सुधारने के लिए धर्म प्रचारक भेजना कितनी बेवकूफी की बात है." फिर तो अमेरिका में उनका अत्यधिक स्वागत हुआ. वहाँ इनके भक्तों का एक बड़ा समुदाय हो गया. तीन वर्ष तक वे अमेरिका में रहे और वहाँ के लोगों को भारतीय तत्वज्ञान की अद्भुत ज्योति प्रदान करते रहे. उनकी वक्तृत्व-शैली तथा ज्ञान को देखते हुए वहाँ के मीडिया ने उन्हें साइक्लॉनिक हिन्दू का नाम दिया.
स्वामी विवेकानंद के इस ओजस्वी चरित्र का महत्व समझाते हुए कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कहा था कि , "यदि कोई भारत को समझना चाहता है तो उसे विवेकानन्द को पढ़ना चाहिए"
योगी अरविन्द ने कहा था, "पश्चिमी जगत में विवेकानन्द को जो सफलता मिली, वह इस बात का प्रमाण है कि भारत विश्व-विजय करके रहेगा."
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने लिखा है, "स्वामी विवेकानन्द का धर्म राष्ट्रीयता को उत्तेजना देने वाला धर्म था. नई पीढ़ी के लोगों में उन्होंने भारत के प्रति भक्ति जगायी, उसके अतीत के प्रति गौरव एवं उसके भविष्य के प्रति आस्था उत्पन्न की |
ऐसे युगपुरुष को कोटि-कोटि नमन, शत-शत प्रणाम...!!
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